चुनाव के बहाने बदली विमर्श की बयार

संपादकीय

लोकसभा चुनाव में उत्तर भारत के मतदाताओं ने अपने-अपने प्रदेशों में सत्ताधारी पार्टियों पर विश्वास जताया है। हालांकि भाजपा समर्थक मोदी फेक्टर के सिवा कुछ भी मानने को तैयार नहीं है, लेकिन देश के उत्तरी राज्यों में जनता की समझ और लोकतंत्र की परिपक्वता सभी परंपरागत फार्मूलों पर हावी रही। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, चंडीगढ़ और हरियाणा के चुनाव परिणामों के विश्लेषण से साफ है कि जनता परंपरागत मुद्दों से काफी आगे बढ़ चुकी है। इन पांचों प्रदेशों में लोगों ने भले ही देश का नेतृत्व चुनने के लिए वोट दिया हो लेकिन, ईवीएम का बटन दबाते वक्त जहन में प्रदेश सरकार ही रही। राजनीतिक जनादेश देने के साथ ही मतदाताओं ने अपने सामाजिक सरोकार भी खुल कर व्यक्त किए। हरियाणा में जातीय समीकरणों पर आधारित राजनीति दम तोड़ गई तो जम्मू-कश्मीर में जनता ने अलगाववाद के मुंह पर तमाचा जड़ दिया। पंजाब में गुरुग्रंथ साहब की बेअदबी से खफा मतदाताओं ने अपने गुस्से का इजहार किया तो हिमाचल में विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा गया। चंडीगढ़ अपने मिजाज के अनुसार हमेशा की तरह ही नकारात्मक विषयों से दूर रहा।

बात की शुरुआत भारत के मुकुट माने वाले जम्मू-कश्मीर से की जानी चाहिए। यहां लोकसभा सीटों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन इस प्रदेश का राष्ट्रीय महत्व किसी भी बड़े राज्य से ज्यादा है। भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से जम्मू-कश्मीर तीन क्षेत्रों में बंटा है। कश्मीर घाटी की तीनों सीटों पर नेशनल कांफ्रेंस ने जीत दर्ज की है। मुख्य मुकाबले में रही महबूबा मुफ्ती की पीडीपी की अलगाववाद समर्थित राजनीति लोगों को रास नहीं आई। एक बड़ा तबका भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के कारण भी पीडीपी से खफा था। यही तबका महबूबा का मुख्य जनाधार समझा जाता है। कांग्रेस ने इन तीनों ही सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किए जिसका सीधा-सीधा लाभ फारुख अब्दुला की नेशनल कॉन्फ्रेंस को मिला।

जम्मू संभाग की दोनों सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की है। यहां मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में रहा। डोगरी और हिंदी भाषा वाले इस क्षेत्र में राष्ट्रवाद ही मुद्दा रहा। उधमपुर में भाजपा को केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह के कद का लाभ मिला। जम्मू सीट पर भाजपा प्रत्याशी जुगल किशोर को सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट पर कार्रवाई का फायदा हुआ।

लेह-लद्दाख का मिजाज इन दोनों क्षेत्रों से बिल्कुल अलग है। बौद्ध बहुल यह सीट क्षेत्रफल की दृष्टि से तो काफी बड़ी है, लेकिन बर्फीली घाटी में जनसंख्या का घनत्व काफी कम है। यहां मुख्य मुकाबला भाजपा के जामियांग शिरिंग नाम्गयाल, निर्दलीय सज्जाद कारगिली, कांग्रेस के बागी असगर करबलाई और कांग्रेस के उम्मीदवार रिग्जिन स्पलबार के बीच रहा। अंतिम दौर की मतगणना में भाजपा के जामियांगशिरिंग नाम्गयाल बाजी मार गए। लेह को अलग डिवीजन बनाने से यहां के लोग भाजपा से खुश नजर आए। इससे पहले यह क्षेत्र प्रशासनिक दृष्टि से श्रीनगर डिवीजन से जुड़ा हुआ था, जिससे लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। कटरा स्थित श्री माता वैष्णो देवी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर आशुतोष वशिष्ठ कहते हैं जम्मू-कश्मीर के लोगों के राष्ट्रवाद के नाम पर वोट दिए हैं।

कांग्रेस शासित पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह का जादू सिर चढ़कर बोला। यहां की 13 सीटों में से 8 पर कांग्रेस उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है। 2 सीटें अकाली दल और 2भाजपा की झोली में गई हैं। एक सीट संगरूर पर आम आदमी पार्टी का खाता खुल सका। वरिष्ठ पत्रकार सुखबीर सिंह बाजवा कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में हुई बेअदबी की घटनाएं प्रकाश सिंह बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल पर भारी पड़ी। बता दें कि यहां शिरोमणि अकाली दल राजग का प्रमुख घटक है। उसका महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि पंजाब की 13 सीटों में शिअद ने 10 और भाजपा ने मात्र 3 सीटों पर चुनाव लड़ा। भाजपा के खाते वाली गुरदासपुर पर बताया जाता है कि सन्नी दयोल का स्टारडम चला। जैसा कि उन्होंने चुनाव जीतने के बाद कहा भी कि उनका ढाई किलो का हाथ जनता ने और भारी कर दिया। उन्होंने यहां कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष को हराया है। वहीं, अमृतसर में भाजपा प्रत्याशी हरदीप सिंह पुरी काफी कमजोर साबित हुए और देश में मोदी लहर के बावजूद वे एक लाख वोटों से हार गए। होशियारपुर में भाजपा उम्मीदवार सोमप्रकाश 48 हजार 530 वोटों से जीत सके। बताया जा रहा है कि यहां बसपा फेक्टर का भाजपा को फायदा हुआ। बसपा के वोट कांग्रेस को मिलते तो समीकरण बदल जाते।

फिरोजपुर से सुखबीर बादल और बठिंडा में उनकी पत्नी हरसिमरत कौर बादल ने पंजाब में अकाली दल का खाता खोला। शेष आठ सीटों ने कांग्रेस पर जीत दर्ज की। इनमें पटियाला सीट महारानी परनीत कौर और आनंदपुर साहिब की सीट मनीष तिवारी के कारण सुर्खियों में रही। पंजाब के चुनाव पर 2015 में हुए बहबल कलां गोली कांड का असर भी दिखाई दिया। यहां 2 युवक पुलिस की फायरिंग में मारे गए थे। वे बेअदबी करने वालों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। इस घटना के बाद से ही लोग शिअद से खफा हैं। वहीं, जानकारों का मानना है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के बीच चल रही खींचतान का भी कांग्रेस को नुकसान हुआ है।

हरियाणा में इस बार राजनीति का मिजाज अलग दिखाई दिया। जातिवाद, वंशवाद और जोड़तोड़ की राजनीति के लिए बदनाम इस राज्य के मतदाताओं ने इन सभी पहलुओं को दरकिनार कर दिया। यहां अपने आपको पुश्तैनी राजनीति के अलंबरदार मानने वालों को जनता ने घर का रास्ता दिखा दिया। प्रदेश की सभी सीटों 10 पर प्रदेश में सत्ताधारी भाजपा ने जीत दर्ज की है। हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान अनेक स्थानों पर भाजपाई उम्मीदवारों को विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद लोगों ने उन्हें मोदी के नाम पर वोट दिए। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सोनीपत और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा को रोहतक से हार का मुंह देखना पड़ा। रोहतक सीट हुड्डा परिवार के लिए सुरक्षित सीट मानी जाती थी। भूपेंद्र हुड्डा ने 1991, 1996 और 1998 में लगातार 3 बार प्रदेश के बड़े दिग्गज चौ. देवीलाल को हराकर अपनी ताकत का लोहा मनवाया था। देवीलाल के बाद वे एक जाति विशेष के नेता के तौर पर स्थापित हो रहे थे, लेकिन इन चुनाव में जनता ने जातिवाद को ही धराशायी कर दिया।

वहीं चौधरी देवीलाल के नाम पर राजनीति कर रहे उनके तीन प्रपौत्रों को भी हार का सामना करना पड़ा। इंडियन नेशनल लोकदल में फूट के बाद अलग पार्टी बनाने वाले दुष्यंत चौटाला हिसार से चुनाव हार गए। उनके छोटे भाई दिग्विजय सिंह को सोनीपत के मतदाताओं ने नकार दिया। कुरुक्षेत्र में उनके चचेरे भाई इनेलो प्रत्याशी अर्जुन चौटाला को हार का सामना करना पड़ा। पूर्व मुख्यमंत्री और देश के रक्षामंत्री रहे बंसी लाल की पौत्री श्रुति चौधरी भी भिवानी के मतदाताओं का दिल नहीं जीत सकीं। उधर, हिसार में पूर्व मुख्‍यमंत्री भजन लाल के पौत्र भव्‍य बिश्‍नोई को कड़ी शिकस्‍त मिली।

हिमाचल प्रदेश के मतदाताओं ने विकास के नाम पर वोट दिए। यहां की सभी 4 सीटें भाजपा के खाते में गईं। यहां भाजपा के चुनाव प्रचार की कमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने संभाली तो वहीं कांग्रेस की ओर से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह मुकाबले में डटे रहे। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण पार्टी की आपसी गुटबाजी मानी जा रही है। भाजपा की ओर से नेताओं की बड़ी फौज ने मोर्चा संभाला। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, शांता कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धुमल और चौथी बार सांसद बने उनके बेटे अनुराग ठाकुर ने धुआंधार प्रचार किया। कांग्रेस खेमे की ओर से वीरभद्र सिंह लगे तो रहे, लेकिन जानकार बताते हैं उन्होंने भी मन लगाकर काम नहीं किया। उनकी कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू के साथ चल रही अंदरूनी गुटबाजी का भी पार्टी को नुकसान हुआ। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर नए हैं, जिस कारण पार्टी संगठन पर उनकी विशेष पकड़ नहीं बन सकी। चुनाव में अनुभवहीनता की कमी भी साफ दिखाई दी। कारोबारी महेश कुमार बताते हैं कि शिमला शहर के लिए पानी का प्रबंध करना और प्रदेश में सड़कों का नवनिर्माण भाजपा की जीत का मुख्य कारण रहा।

उत्तर भारत के एक मात्र केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में भाजपा उम्मीदवार किरण खेर 46 हजार 970 वोटों से बाजी मार गईं। वे यहां से लगातार दूसरी बार जीती हैं। कांग्रेस ने पूर्व रेल राज्य मंत्री पवन कुमार बंसल को मैदान में उतारा तो पूर्व केंद्रीय मंत्री हरमोहन धवन आम आदमी पार्टी की टिकट पर चुनाव में उतरे। धवन गत लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा में भी शामिल हुए थे और तब टिकट के प्रमुख दावेवार थे। चंडीगढ़ की राजनीति में एक समय विशेष स्थान रखने वाले हरमोहन धवन को इस बार मात्र 13 हजार 781 वोटों से संतोष करना पड़ा। जानकार बताते हैं चंडीगढ़ में भाजपा की अंदरूनी कशमकश के बावजूद मोदी जादू चला है।

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